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दासी



                         दासी

                             :- जयशंकर प्रसाद

प्रश्न

जयशंकर प्रसाद की कहानी ’दासी’ स्त्री जाति की प्रतिष्ठा और गौरव को श्रेष्ठता से दर्शाती है । - प्रस्तुत कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
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उत्तर
 जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद ने संस्कृत, अंग्रेज़ी, पालि, प्राकृत भाषाओं का गहन अध्ययन किया। इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय कर इन ‍विषयों पर एकाधिकार प्राप्त किया।
एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात जयशंकर प्रसाद के तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं। कामायनी इनकी विख्यात रचना है जिसे हिन्दी का महाकाव्य माना जाता है।
इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारत के प्राचीन ऐतिहासिक गौरव को वर्तमान के साथ जोड़कर अपने महान साहित्यकार होने का कर्त्तव्य निभाया।
प्रसाद की भाषा सहज, स्वाभाविक तथा भाव-प्रधान है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है।
 प्रसाद ने दासी कहानी में स्त्री जाति की प्रतिष्ठा और गौरव को अति महानता से दर्शाया है और पुरुषवादी समाज-व्यवस्था में स्त्री को नैतिकता, मानवता, प्रेम, दया , कर्त्त्वव्यनिष्ठता, सहानुभूति का पर्याय स्वीकार किया है।
दासी कहानी में इरावती और फ़िरोज़ा दो स्त्री पात्र है और दोनों ही दासी हैं जो विषम परिस्थितियों में भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करती हैं। इरावती अपने को एक क्रीत दासी मानती है जिसे म्लेच्छों ने मुलतान की लूट में पकड़ लिया था और म्लेच्छों के कठोर व बर्बर व्यवहार के बीच वह जीवित ही नहीं रही बल्कि अपने पथ से भी नहीं डिगी। एक दिन कन्नौज के चौराहे पर घोड़ों के साथ ही आतताइयों ने उसे पाँच सौ दिरम के बदले काशी के एक महाजन के हाथों बेच दिया। वह जानती थी कि उसका शरीर बिका है, आत्मा नहीं। बिक्री के दौरान उसने अपने स्वामी की अनेक उचित-अनुचित शर्तों को स्वीकार किया था जिसका पालन करने से वह अपने को अपवित्र मानने लगी थी। बलराज के प्रेम-प्रदर्शन पर वह उससे कहती है कि अब वह उसके स्नेह के योग्य नहीं रही, वह अपवित्र हो चुकी है। इस प्रकार इरावती अपने आदर्श स्त्री होने का परिचय देती है। इरावती का आदर्श उस समय उभरकर सामने आता है जब बलराज यह कहता है कि पशुओं के समान मनुष्य नहीं बिक सकते तब इरावती कहती है कि उसने सिर पर तृण रखकर स्वयं को बेचने की स्वीकृति दी थी, वह इस प्रण को कैसे तोड़ सकती है।

इरावती अपने प्रेमी बलराज और अपने मालिक दोनों के प्रति निष्ठावान है व ईमानदारी से व्यवहार करती है। जब अहमद की तलवार उसके स्वामी धनदत्त के गले पर पड़ी थी तब इरावती ने "इन्हें छोड़ दो, न मारो" कहती हुई तलवार के सामने आ गई थी।

इरावती में आत्मसम्मान का भाव भी है। बलराज के व्यवहार के प्रति वह रुष्ट थी। वह फ़िरोज़ा से कहती है -"मेरे दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है, उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती, फ़िरोज़ा। मैं तो देखूँगी कि वह मेरे दुख को कितना कम कर सका है।"

फ़िरोज़ा कहानी की अन्य पात्रा है जो अहमद से प्रेम करती है परन्तु अपने उसूलों के कारण उसे अपनाती नहीं है क्योंकि अहमद ने उसकी आज़ादी की कीमत के एक हज़ार सोने के सिक्के राजा तिलक को नहीं चुकाए थे। फ़िरोज़ा तुर्क बाला थी जिसमें अल्हड़पन, चंचलता और ज़िन्दगी जीने की पूरी लालसा थी। फ़िरोज़ा दिलेर व हिम्म्ती स्त्री है। वह बलराज को आत्महत्या करने से रोकती है। उसका मानना है कि युद्‌ध में मरना वीरता का प्रतीक है किन्तु आत्महत्या करना मूर्खता है। वह हर परिस्थिति में खुश रहकर जीना चाहती है। वह आशावादी महिला है। वह अत्यंत साहसी और निडर स्त्री है। जब अहमद इरावती पर बुरी दृष्टि डालता है तब फ़िरोज़ा उसका सामना करती है और इरावती के सम्मान की रक्षा करती है। वह अहमद का इसलिए भी विरोध करती है क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि हिन्दू जाटों और मुसलमानों के बीच युद्‌ध हो, किन्तु अहमद उसका कहना नहीं मानता है, युद्‌ध करता है और युद्‌ध में मारा जाता है। कहानी के अंत में फ़िरोज़ा के त्यागमय जीवन की झलक मिलती है। वह प्रेम की पुजारिन बन जाती है जो अहमद की समाधि पर रोज़ झाड़ू लगाती है तथा दीप जलाकर अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करती है।


निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि स्त्री समाज में मात्र देवी या दासी बनी पिसती रही, पर कभी इन बेड़ियों को तोड़ने को उद्यत न हुई किन्तु जयशंकर प्रसाद ने मानव जीवन में स्त्री की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उसके आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत किया और स्त्री-स्वातंत्र्य की वकालत इन शब्दो में की -

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।

समरसता है सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की।।

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